Friday, July 8, 2011

मोमिन की सिफ़त momin ki sifaat aqwale masoomeen

हदीस
पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि) ने अमीरल मोमेनीन अली (अलाहिस्सलाम ) से फ़रमाया कि मोमिने कामिल में 103 सिफ़तें होती हैं
और यह तमाम सिफ़ात पाँच हिस्सों में तक़सीम होती हैं, सिफ़ाते फेली, सिफ़ाते अमली, सिफ़ाते नियती और सिफ़ाते ज़ाहिरी व बातिनी इसके बाद अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) ने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल वह यह 103 सिफ़ात क्या हैं? हज़रत ने फ़रमाया कि ऐ अली मोमिन के सिफ़ात यह हैं कि वह हमेशा फ़िक्र करता है और खुलेआम अल्लाह का ज़िक्र करता है, उसका इल्म, होसला और तहम्मुल ज़्यादा होता है और दुश्मन के साथ भी अच्छा बर्ताव करता है................।
हदीस की शरह
यह हदीस हक़ीक़त में इस्लामी अख़लाक़ का एक दौरा है, जिसको रसूले अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम) हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) से ख़िताब करते हुए बयान फ़रमा रहे हैं। जिसका ख़ुलासा पाँच हिस्सों होता है जो यह हैं फ़ेल, अमल, नियत,ज़ाहिर और बातिन।
फ़ेल व अमल में क्या फ़र्क़ है ? फ़ेल एक गुज़रने वाली चीज़ है, जिसको इंसान कभी कभी अंजाम देता है, इसके मिक़ाबले में अमल है जिसमें इस्तमरार(निरन्तरता) पाया जाता है।
पैगम्बरे अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम) फ़रमाते हैं किः
मोमिन की पहली सिफ़त जवालुल फ़िक्र है यानी मोमिन की फ़िक्र कभी जामिद व राकिद(रुकना) नही होती बल्कि वह हमेशा फ़िक्र करता रहता है और नये मक़ामात पर पहुँचता रहता है और थोड़े से इल्म से क़ाने नही होता। यहाँ पर हज़रत ने पहली सिफ़त फ़िक्र को क़रार दिया है जो फ़िक्र की अहमियत को वाज़ेह करती है।मोमिन का सबसे बेहतरीन अमल तफ़क्कुर (फ़िक्र करना) है और अबुज़र की बेशतर इबादात तफ़क्कुर थी। अगर हम कामों के नतीजे के बारे में फ़िक्र करें, तो उन मुश्किलात में न घिरें जिन में आज घिरे हुए हैं।
मोमिन की दूसरी सिफ़त जवहरियु अज़्ज़िक्रहै कुछ जगहों पर जहवरियु अज़्ज़िक्र भी आया है हमारी नज़र में दोनों ज़िक्र को ज़ाहिर करने के माआना में हैं। ज़िक्र को ज़ाहिरी तौर पर अंजाम देना क़सदे क़ुरबत के मुनाफ़ी नही है, क्योंकि इस्लामी अहकामात में ज़िक्र जली (ज़ाहिर) और ज़िक्र ख़फ़ी( पोशीदा) दोनो हैं या सदक़ा व ज़कात मख़फ़ी भी है और ज़ाहिरी भी। इनमें से हर एक का अपना ख़ास फ़ायदा है जहाँ पर ज़ाहिरी हैं वहाँ तबलीग़ है और जहाँ पर मख़फ़ी है वह अपना मख़सूस असर रखती है।
मोमिन की तीसरी सिफ़त कसीरन इल्मुहु यानी मोमिन के पास इल्म ज़्यादा होता है। हदीस में है कि सवाब अक़्ल और इल्म के मुताबिक़ है।यानी मुमकिन है कि एक इंसान दो रकत नमाज़ पढ़े और उसके मुक़ाबिल दूसरा इंसान सौ रकत मगर इन दो रकत का सवाब उससे ज़्यादा हो, वाकियत यह है कि इबादत के लिए ज़रीब है और इबादत की इस ज़रीब का नाम इल्म और अक़्ल है।
मोमिन की चौथी सिफ़त अज़ीमन हिल्मुहु है यानी मोमिन का इल्म जितना ज़्यादा होता जाता है उतना ही उसका हिल्म ज़्यादा होता जाता है। एक आलिम इंसान को समाज में मुख़तलिफ़ लोगों से रूबरू होना पड़ता है अगर उसके पास हिल्म नही होगा तो मुश्किलात में घिर जायेगा। मिसाल के तौर पर हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के हिल्म की तरफ़ इशारा किया जा सकता है। ग़ुज़िश्ता अक़वाम में क़ौमे लूत से ज़्यादा ख़राब कोई क़ौम नही मिलती। और उनका अज़ाब भी सबसे ज़ायादा दर्दनाक था। फलम्मा जाआ अमरुना जअलना आलियाहा साफ़िलहा व अमतरना अलैहा हिजारतन मिन सिज्जीलिन मनज़ूद। ”[2] इस तरह के उनके शहर ऊपर नीचे हो गये और बाद में उन पर पत्थरों की बारिश हुई। इस सब के बावजूद जब फ़रिश्ते इस क़ौम पर अज़ाब नाज़िल करने के लिए आये तो पहले हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में पहुँचे और उनको बेटे की पैदाइश की खुश ख़बरी दी जिससे वह ख़ुश हो गये, बाद में क़ौमें लूत की शिफ़ाअत की। फ़लम्मा ज़हबा अन इब्राहीमा अर्रवउ व जाअतहु अलबुशरा युजादिलुना फ़ी क़ौमि लूतिन0 इन्ना इब्राहीमा लहलीमुन अव्वाहुन मुनीब” [4] ऐसी क़ौम की शिफ़ाअत के लिए इंसान को बहुत ज़्यादा हिल्म की ज़रूरत है। यह हज़रत इब्राहीम की बुज़ुर्गी, हिल्म और उनके दिल के बड़े होने की निशानी है। बस आलिम को चाहिए कि अपने हिल्म को बढ़ाये और जहाँ तक हो सके इस्लाह करे न यह कि उसको छोड़ दे।
मोमिन की पाँचवी सिफ़त जमीलुल मनाज़िअतुनहै यानी अगर किसी से कोई बहस या बात-चीत करनी होती है तो उसको अच्छे अन्दाज में करता है जंगो जिदाल नही करता। आज हमारे समाज की हालत बहुत हस्सास है। ख़तरा हम से सिर्फ़ एक क़दम के फ़ासले पर है इन हालात में अक़्ल क्या कहती है ? क्या अक़्ल यह कहती है कि हम किसी भी मोज़ू को बहाना बना कर, जंग के एक नये मैदान की बुनियाद डाल दें या यह कि यह वक़्त एक दूसरे की मदद करने और आपस में मुत्तहिद होने का वक़्तहै ?
सिफ़ाते मोमिन (2)
पैगम्बरे इस्लाम (स.) की एक हदीस - आप हज़रत अली (अ.) को खिताब करते हुए फ़रमाते हैं  कि कोई भी उस वक़्त तक मोमिन नही बन सकता जब तक उसमें 103 सिफ़ात जमा न हो जायें, यह सिफ़ात पाँच हिस्सो में तक़सीम होती है। पाँच सिफ़ात बयान हो चुकी हैं और पाँच सिफ़ात की तरफ़ इशारा करना है।
हदीस-
“.......... करीमुल मुराजिअः, औसाउ अन्नासि सदरन, अज़ल्लाहुम नफ़सन, सहकाहु तबस्सुमन, व इजतमाअहु ताल्लुमन........”[4]
तर्जमा-
.... वह करीमाना अन्दाज़ में मिलता है, उसका सीना सबसे ज़्यादा कुशादा होता है, वह बहुत ज़्यादा मुतवाज़े होता है, वह ऊँची आवाज़ में नही हसता और जब वह लोगों के दरमियान होता है तो तालीम व ताल्लुम करता........।
मोमिन की छटी सिफ़त करीमुल मुराजिअः है यानी वह करीमाना अनदाज़ में मिलता जुलता है। इस में दो एहतेमाल पाये जाते हैं।
1- जब लोग उससे मिलने आते हैं तो वह उन के साथ करीमाना बर्ताव करता है। यानी अगर वह उन कामों पर क़ादिर होता है जिन की वह फ़रमाइश करते हैं तो या उसी वक़्त उसको अंजाम दे देता है या यह कि उसको आइंदा अंजाम देने का वादा कर लेता है और अगर क़ादिर नही होता तो माअज़ेरत कर लेता है। क़ुरआन कहता है कि क़ौलुन माअरूफ़ुन व मग़िफ़िरतुन ख़ैरुन मिन सदक़तिन यतबउहा अज़न”[5]
2- या यह कि जब वह लोगों से मिलने जाता है तो उसका अन्दाज़ करीमाना होता है। यानी अगर किसी से कोई चीज़ चाहता है तो उसका अन्दाज़ मोद्देबाना होता है, उस चीज़ को हासिल करने के लिए इसरार नही करता, और सामने वाले को शरमिन्दा नही करता।
मोमिन की सातवी सिफ़त औसाउ अन्नासि सदरन है यानी उसका सीना सबसे ज़्यादा कुशादा होता है। क़ुरआन सीने की कुशादगी के बारे में फ़रमाता है कि फ़मन युरिदि अल्लाहु अन यहदियाहु यशरह सदरहु लिल इस्लामि व मन युरिद अन युज़िल्लाहुयजअल सदरहु ज़य्यिक़न हरजन...। ”[6] अल्लाह जिसकी हिदायत करना चाहता है(यानी जिसको क़ाबिले हिदायत समझता है) इस्लाम क़बूल करने के लिए उसके सीने को कुशादा कर देता है और जिसको गुमराह करना चाहता है(यानी जिसको क़ाबिले हिदायत नही समझता) उसके सीने को तंग कर देता है।

सीने की कुशादगीके क्या माअना है ? जिन लोगों का सीना कुशादा होता है वह सब बातों को(नामुवाफ़िक़ हालात, मुश्किलात, सख़्त हादसात..) बर्दाश्त करते हैं। बुराई उन में असर अन्दाज़ नही होती है,वह जल्दी नाउम्मीद नही होते, इल्म, हवादिस, व माअरेफ़त को अपने अन्दर समा लेते हैं, अगर कोई उनके साथ कोई बुराई करता है तो वह उसको अपने ज़हन के एक गोशे में रख लेते हैं और उसको उपने पूरे वजूद पर हावी नही होने देते। लेकिन जिन लोगों के सीने तंग हैं अगर उनके सामने कोई छोटीसी भी नामुवाफ़िक़ बात हो जाती है तो उनका होसला और तहम्मुल जवाब दे जाते है।
मोमिन का आठवी सिफ़त अज़ल्लाहुम नफ़्सनहै अर्बी ज़बान में ज़िल्लतके माअना फ़रोतनी व ज़लूलके माअना राम व मुतीअ के हैं। लेकिन फ़ारसी में ज़िल्लत के माअना रुसवाई के हैं बस यहाँ पर यह सिफ़त फ़रोतनी के माअना में है। यानी मोमिन के यहाँ फ़रोतनी बहुत ज़्यादा पाई जाती है और वह लोगों से फ़रोतनी के साथ मिलता है। सब छोटों बड़ो का एहतेराम करता है और दूसरों से यह उम्मीद नही रख़ता कि वह उसका एहतेराम करें।
मोमिन की नौवी सिफ़त ज़हकाहु तबस्सुमनहै। मोमिन बलन्द आवाज़ में नही हँसता है। रिवायात में मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम(स.) कभी भी बलन्द आवाज़ में नही हँसे। बस मोमिन का हँसना भी मोद्देबाना होता है।
मोमिन की दसवी सिफ़त इजतमाउहु तल्लुमन है। यानी मोमिन जब लोगों के दरमियान बैठता है तो कोशिश करता है कि तालाम व ताल्लुम में मशग़ूल रहे और वह ग़ीबत व बेहूदा बात चीत से जिसमें उसके लिए कोई फ़ायदा नही होता परहेज़ करता है।
सिफ़ाते मोमिन (3)
एक हदीस जिसमें आपने मोमिन के 103 सिफ़ात बयान फ़माये है, उनमें से दस सिफ़ात बयान हो चुके हैं और इस वक़्त छः सिफ़ात और बयान करने हैं।
हदीस- “ ...... मुज़क्किरु अलग़ाफ़िल, मुअल्लिमु अलजाहिल, ला यूज़ी मन यूज़ीहु वला यखूज़ु फ़ी मा ला युअनीहु व ला युशमितु बिमुसीबतिन व ला युज़क्किरु अहदन बिग़ैबतिन......।[7]”
तर्जमा-
मोमिन वह इंसान है जो ग़ाफ़िल लोगों को आगाह() करता है, जाहिलों को तालीम देता है, जो लोग उसे अज़ीयत पहुँचाते हैं वह उनको नुक़्सान नही पहुँचाता, जो चीज़ उससे मरबूत नही होती उसमें दख़ल नही देता, अगर उसको नुक़्सान पहुँचाने वाला किसी मुसिबत में घिर जाता है तो वह उसके दुख से खुश नही होता और ग़ीबत नही करता।
मोमिन की ग्यारहवी सिफ़त मुज़क्किरु अलग़ाफ़िलहै। यानी मोमिन ग़ाफ़िल (अचेत) लोगों को मतवज्जेह करता है। ग़ाफ़िल उसे कहा जाता है जो किसी बात को जानता हो मगर उसकी तरफ़ मुतवज्जह न हो। जैसे जानता हो कि शराब हराम है मगर उसकी तरफ़ मुतवज्जेह न हो।
मोमिन की बारहवी सिफ़त मुअल्लिमु अलजाहिलि है। यानी मोमिन जाहिलों को तालीम देता है। जाहिल, ना जानने वाले को कहा जाता है।
ग़ाफिल को मुतवज्जेह करने, जाहिल को तालीम देने और अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर में क्या फ़र्क़ है ?
इन तीनों वाजिबों को एक नही समझना चाहिए। ग़ाफ़िलउसको कहते हैं जो हुक्म को जानता है मगर मुतवज्जेह नही है( मोज़ू को भूल गया है) मसलन जानता है कि ग़ीबत करना गुनाह है लेकिन इससे ग़ाफ़िल हो कर ग़ीबत में मशग़ूल हो गया है।जाहिलवह है जो हुक्म को ही नही जानता और हम चाहते हैं कि उसे हुक्म के बारे में बतायें। जैसे वह यह ही नही जानता कि ग़ीबत हराम है। अम्र बिल मारूफ़ नही अनिल मुनकर वहाँ पर है जहाँ मोज़ू और हुक्म के बारे में जानता हो यानी न ग़ाफ़िल हो न जाहिल। इन सब का हुक्म क्या है ?
ग़ाफ़िलयानी अगर कोई मोज़ू से ग़ाफ़िल हो और वह मोज़ू मुहिम न हो तो वाजिब नही है कि हम उसको मुतवज्जेह करें। जैसे- नजिस चीज़ का खाना। लेकिन अगर मोज़ू मुहिम हो तो मुतवज्जेह करना वाजिब है जैसे- अगर कोई किसी बेगुनाह इंसान का खून उसको गुनाहगार समझते हुए बहा रहा हो तो इस मक़ाम पर मुतवज्जेह करना वाजिब है।
जाहिलजो अहकाम से जाहिल हो उसको तालीम देनी चाहिए और यह वाजिब काम है।
अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकरअगर कोई इंसान किसी हुक्म के बारे में जानता हो व ग़ाफिल भी न हो और फिर भी गुनाह अंजाम दे तो हमें चाहिए कि उसको नर्म ज़बान में अम्र व नही करें।
यह तीनों वाजिब हैं मगर तीनों के दायरों में फ़र्क़ पाया जाता है। और अवाम में जो यह कहने की रस्म हो गई है कि मूसा अपने दीन पर, ईसा अपने दीन परया यह कि मुझे और तुझे एक कब्र में नही दफ़नाया जायेगाबेबुनियाद बात है। हमें चाहिए कि आपस में एक दूसरे को मुतवज्जेह करें और अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर से ग़ाफ़िल न रहें। यह दूसरों का काम नही है। रिवायात में मिलता है कि समाज में गुनाहगार इंसान की मिसाल ऐसी है जैसे कोई किश्ती में बैठ कर अपने बैठने की जगह पर सुराख करे और जब उसके इस काम पर एतराज़ किया जाये तो कहे कि मैं तो अपनी जगह पर सुराख कर रहा हूँ। तो उसके जवाब में कहा जाता है कि इसके नतीजे में हम सब मुश्तरक (सम्मिलित) हैं अगर किश्ति में सुराख़ होगा तो हम सब डूब जायेंगे। रिवायात में इसकी दूसरी मिसाल यह है कि अगर बाज़ार में एक दुकान में आग लग जाये और बाज़ार के तमाम लोग उसको बुझाने के लिए इक़दाम करें तो वह दुकानदार यह नही कह सकता कि तुम्हे क्या मतलब यह मेरी अपनी दुकान है, क्योँकि उसको फौरन सुन ने को मिलेगा कि हमारी दुकानें भी इसी बाज़ार में हैं मुमकिन है कि आग हमारी दुकान तक भी पहुँच जाये। यह दोनों मिसालें अम्र बिल मारूफ व नही अनिल मुनकर के फ़लसफ़े की सही ताबीर हैं। और इस बात की दलील, कि यह सब का फ़रीज़ा है यह है कि समाज में हम सबकी सरनविश्त मुश्तरक है।
मोमिन की तेरहवी सिफ़त- ला युज़ी मन युज़ीहुहै। यानी जो उसको अज़ीयत देते हैं वह उनको अज़ीयत नही देता। दीनी मफ़ाहीम में दो मफ़हूम पाये जाते हैं जो आपस में एक दूसरे से जुदा है।।
1- अदालत- अदालत के माअना यह हैं कि मन ऐतदा अलैकुम फ़अतदू अलैहि बिमिसलिन मा ऐतदा अलैकुमयानी तुम पर जितना ज़ुल्म किया है तुम उससे उसी मिक़दार में तलाफ़ी करो।
2- फ़ज़ीलत- यह अदल से अलग एक चीज़ है जो वाक़ियत में माफ़ी है। यानी बुराई के बदले भलाई और यह एक बेहतरीन सिफ़त है जिसके बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि युअती मन हरूमहु व यअफ़ु मन ज़लमहु युसिल मन क़तअहु जो उसे किसी चीज़ के देने में दरेग़ करता है उसको अता करता है, जो उस पर ज़ुल्म करता है उसे माफ़ करता है, जो उससे क़तअ ताल्लुक़ करता है उससे मिलता है। यानी जो मोमिने कामिल है वह अदालत को नही बल्कि फ़ज़ीलत को इख़्तियार करता है। (अपनाता है।)
मोमिन की चौदहवी सिफ़त- वला यख़ुज़ु फ़ी मा ला युअनीहु है यानी मोमिने वाक़ई उस चीज़ में दख़ालत नही करता जो उससे मरबूत न हो। मा ला युअनीहु ” “मा ला युक़सिदुहुके माअना में है यानी वह चीज़ आप से मरबूत नही है। एक अहम मुश्किल यह है कि लोग उन कामों में दख़ालत करते हैं जो उनसे मरबूत नही है।हुकुमती सतह पर भी ऐसा ही है। कुछ हुकुमतें दूसरों के मामलात में दख़ालत करती हैं।
मोमिन की पन्दरहवी सिफ़त- व ला युश्मितु बिमुसिबतिन है। ज़िन्दगी में अच्छे और बुरे सभी तरह के दिन आते हैं। मोमिन किसी को परेशानी में घिरा देख कर उसको शमातत नही करता यानी यह नही कहता कि देखा अल्लाह ने तुझ को किस तरह मुसिबत में फसाया मैं पहले ही नही कहता था कि ऐसा न करक्योंकि इस तरह बातें जहाँ इंसान की शुजाअत के ख़िलाफ़ हैं वहीँ ज़ख्म पर नमक छिड़कने के मुतरादिफ़ भी। अगरचे मुमकिन है कि वह मुसिबत उसके उन बुरे आमाल का नतीजा ही हों जो उसने अंजाम दिये हैं लेकिन फिर भी शमातत नही करनी चाहिए, क्योंकि हर इंसान की ज़िन्दगी में सख़्त दिन आते हैं क्या पता आप खुद ही कल किसी मुसीबत में घिर जाओ।
मोमिन की सौलहवी सिफ़त- व ला युज़करु अहदन बिग़िबतिनहै। यानी वह किसी का ज़िक्र भी ग़िबत के साथ नही करता। ग़ीबत की अहमियत के बारे में इतना ही काफ़ी है कि मरहूम शेख मकासिब में फ़रमाते हैं कि अगर ग़ीबत करने वाला तौबा न करे तो दोज़ख में जाने वाला पहला नफ़र होगा, और अगर तौबा करले और तौबा क़बूल हो जाये तब भी सबसे आख़िर में जन्नत में वारिद होगा। ग़ीबत मुसलमान की आबरू रेज़ी करती है और इंसान की आबरू उसके खून की तरह मोहतरम है और कभी कभी आबरू खून से भी ज़्यादा अहम होती है।
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हवाले
[1] बिहारुल अनवार जिल्द 64 बाब अलामातुल मोमिन हदीस 45पेज न. 310
 [2] सूरए हूद /82
 [3] सूरए हूद/ 74-75
 [4] बिहारूल अनवार जिल्द 64/310
 [5] सूरए बक़रः/263
 [6] सूरए अनआम/125
 [7] बिहारुल अनवार जिल्द 46/310
सिफ़ाते मोमिन (4)

मुक़द्दमा-
पैग़म्बरे अकरम (स.) की एक हदीस जो आपने हज़रत अली (अ.) से खिताब फ़रमाई यह हदीस मोमिने कामिल के(103) सिफ़ात के बारे में थी। इस हदीस से 16 सिफ़ात बयान हो चुकी हैं और अब छः सिफात की तरफ़ और इशारा करना है।
हदीस-

“........
बरीअन मिन मुहर्रिमात, वाक़िफन इन्दा अश्शुबहात, कसीरुल अता, क़लीलुल अज़ा, औनन लिल ग़रीब, व अबन लिल यतीम.......।”[1]
तर्जमा-
मोमिन हराम चीज़ों से बेज़ार रहता है, शुबहात की मंज़िल पर तवक़्क़ुफ़ करता है और उनका मुरतकिब नही होता, उसकी अता बहुत ज़्यादा होती है, वह लोगों को बहुत कम अज़ीयत देता है, मुसाफ़िरों की मदद करता है और यतीमों का बाप होता है।
हदीस की शरह-
मोमिन की सतरहवी सिफ़त- बरीअन मिन अलमुहर्रिमातहै, यानी मोमिन वह है जो हराम से बरी और गुनाहसे बेज़ार है। गुनाह अंजाम न देना और गुनाह से बेज़ार रहना इन दोनों बातों में फ़र्क़ पाया जाता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो गुनाह में लज़्ज़त तो महसूस करते हैं मगर अल्लाह की वजह से गुनाह को अंजाम नही देते। यह हुआ गुनाह अंजाम न देना, मगर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो तहज़ीबे नफ़्स के ज़रिये इस मक़ाम पर पहुँच जाते हैं कि उनको गुनाह से नफ़रत हो जाती है और वह गुनाह से हरगिज़ लज़्ज़त नही लेते बस यही गुनाह से बेज़ारी है। और इंसान को उस मक़ाम पर पहुँचने के लिए जहाँ पर अल्लाह की इताअत से लज़्ज़त और गुनाह से तनफ़्फ़ुर पैदा हो बहुत ज़्यादा जहमतों का सामना करना पड़ता है।
मोमिन की अठ्ठारहवी सिफ़त- वाक़िफ़न इन्दा अश्शुबहातहै। यानी मोमिन वह है जो शुबहात के सामने तवक़्क़ुफ़ करता है। शुबहात मुहर्रेमात का दालान है और जो भी शुबहात का मुर्तकिब हो जाता है वह मुहर्रेमात में फ़स जाता है। शुबहात बचना चाहिए क्योंकि शुबहात उस ठलान मानिन्द है जो किसी दर्रे के किनारे वाक़ेअ हो। दर वाक़ेअ शुबहात मुहर्रेमात का हरीम (किसी इमारत के अतराफ़ का हिस्सा) हैं लिहाज़ा उनसे इसी तरह बचना चाहिए जिस तरह ज़्यादा वोल्टेज़ वाली बिजली से क्योंकि अगर इंसान मुऐय्यन फ़ासले की हद से आगे बढ़ जाये तो वह अपनी तरफ़ खैंच कर जला डालती है इसी लिए उसके लिए हरीम(अतराफ़ के फासले) के क़ाइल हैं। कुछ रिवायतों में बहुत अच्छी ताबीर मिलती है जो बताती हैं कि लोगों के हरीम में दाखिल न हो ताकि उनके ग़ज़ब का शिकार न बन सको। बहुत से लोग ऐसे हैं जो मंशियात का शिकार हो गये हैं शुरू में उन्होंने तफ़रीह में नशा किया लेकिन बाद में बात यहाँ तक पहुँची कि वह उसके बहुत ज़्यादा आदि हो गये।
मोमिन की उन्नीसवी सिफ़त- कसीरुल अता है। यानी मोमिन वह है जो कसरत से अता करता है यहाँ पर कसरत निस्बी है(यानी अपने माल के मुताबिक़ देना) मसलन अगर एक बड़ा अस्पताल बनवाने के लिए कोई बहुत मालदार आदमी एक लाख रुपिये दे तो यह रक़म उसके माल की निस्बत कम है लेकिन अगर एक मामूली सा मुंशी एक हज़ार रूपिये दे तो सब उसकी तारीफ़ करते हैं क्योकि यह रक़म उसके माल की निस्बत ज़्यादा है। जंगे तबूक के मौक़े पर पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने इस्लामी फ़ौज की तैय्यारी के लिए लोगों से मदद चाही लोगों ने बहुत मदद की इसी दौरान एक कारीगर ने इस्लामी फ़ौज की मदद करने के लिए रात में इज़ाफ़ी काम किया और उससे जो पैसा मिला वह पैग़म्बर (स.) की खिदमत में पेश किया उस कम रक़म को देख कर मुनाफ़ेक़ीन ने मज़ाक़ करना शुरू कर दिया फौरन आयत नाज़िल हुई

अल्लज़ीना यलमिज़ूना अलमुत्तव्विईना मिनल मुमिनीना फ़ी अस्सदक़ाति व अल्लज़ीना ला यजिदूना इल्ला जुह्दा हुम फ़यसख़रूना मिन हुम सख़िरा अल्लाहु मिन हुम व लहुम अज़ाबुन अलीमुन।”[2] जो लोग उन पाक दिल मोमेनीन का मज़ाक़ उड़ाते है जो अपनी हैसियत के मुताबिक़ कुमक करते हैं, तो अल्लाह उन का मज़ाक़ उड़ाने वालों का मज़ाक़ उड़ाता है। पैग़म्बर (स.) ने फरमाया अबु अक़ील अपनी खजूर इन खजूरों पर डाल दो ताकि तुम्हारी खजूरों की वजह से इन खजूकरों में बरकत हो जाये।
मोमिन की बीसवी सिफ़त- क़लीलुल अज़ा है यानी मोमिन कामिलुल ईमान की तरफ़ से अज़ीयत कम होती है इस मस्अले को वाज़ेह करने के लिए एक मिसाल अर्ज़ करता हूँ । हमारी समाजी ज़िन्दगीं ऐसी है अज़यतों से भरी हुई है। नमूने के तौर पर घर की तामीर जिसकी सबको ज़रूरत पड़ती है, मकान की तामीर के वक़्त लोग तामीर के सामान ( जैसे ईंट, पत्थर, रेत, सरिया...) को रास्तों में फैला कर रास्तों को घेर लेते हैं जिससे आने जाने वालों को अज़ियत होती है। और यह सभी के साथ पेश आता है लेकिन अहम बात यह है कि समाजी ज़िन्दगी में जो यह अज़ियतें पायी जाती हैं इन को जहाँ तक मुमकिन हो कम करना चाहिए। बस मोमिन की तरफ़ से नोगों को बहुत कम अज़ियत होती है।
मोमिन की इक्कीसवी सिफ़त- औनन लिल ग़रीबहै। यानी मोमिन मुसाफ़िरों की मदद करता है। अपने पड़ौसियों और रिश्तेदारों की मदद करना बहुत अच्छा है लेकिन दर वाक़ेअ यह एक बदला है यानी आज मैं अपने पड़ौसी की मदद करता हूँ कल वह पड़ौसी मेरी मेरी मदद करेगा। अहम बात यह है कि उसकी मदद की जाये जिससे बदले की उम्मीद न हो लिहाज़ा मुसाफ़िर की मदद करना सबसे अच्छा है।
मोमिन की बाइसवी सिफ़त- अबन लिल यतीमहै। यानी मोमिन यतीम के लिए बाप की तरह होता है। पैग़म्बर ने यहाँ पर यह नही फरमाया कि मोमिन यतीमों को खाना खिलाता है, उनसे मुहब्बत करता है बल्कि परमाया मोमिन यतीम के लिए बाप होता है। यानी वह तमाम काम जो एक बाप अपने बच्चे के लिए अंजाम देता है, मोमिन यतीम के लिए अंजाम देता है।
यह तमाम अख़लाक़ी दस्तूर सख़्त मैहौल में बयान हुए और इन्होंने अपना असर दिखाया। हम उम्मीदवार हैं कि अल्लाह हम सबको अमल करने की तौफ़ाक़ दे और हम इन सिफ़ात पर तवज्जुह देते हुए कामिलुल ईमान बन जायें।
सिफ़ाते मोमिन (5)
मुक़द्दमा-
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की एक हदीस जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से खिताब फ़रमायी थी इसमें मोमिन के 103 सिफ़ात बयान फ़रमाये गये हैं जिनमें से बाईस सिफ़ात बयान हो चुके हैं और चार सिफात की तरफ़ और इशारा करना है।
हदीस-

“.....
अहला मिन अश्शहदि व असलद मिन अस्सलद, ला यकशफ़ु सर्रन व ला यहतकु सितरन...... ” [3]
तर्जमा-
मोमिन शहद से ज़्यादा मीठा औक पत्थर से ज़यादा सख़्त होता है, जो लोग उसको अपने राज़ बता देते हैं वह उन राज़ो को आशकार नही करता और अगर ख़ुद से किसी के राज़ को जान लेता है तो उसे भी ज़ाहिर नही करता है।
हदीस की शरह-
मोमिन की तेइसवी सिफ़त-अहला मिन अश्शहदहै। मोमिन शहद से ज़्यादा मीठा होता है यानी दूसरों के साथ उसका सलूक बहुत अच्छा होता है। आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम और ख़ास तौर पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बारे में मशहूर है कि आपकी नशिस्त और मुलाक़ातें बहुत शीरीन हुआ करती थीं, आप अहले मीज़ाह और लतीफ़ बातें करने वाले थे। कुछ लोग यह ख़्याल हैं कि इंसान जितना ज़्यादा मुक़द्दस हो उसे उतना ही ज़्यादा तुर्शरू होना चाहिए। जबकि वाक़ियत यह है कि इंसान के समाजी, सियासी, तहज़ीबी व दिगर पहलुओं में तरक़्क़ी के लिए जो चीज़ सबसे ज़्यादा असर अंदाज़ है वह नेक सलूक ही है। कभी-कभी सख्त से सख्त मुश्किल को भी नेक सलूक, मुहब्बत भरी बातों और ख़न्दा पेशानी के ज़रिये हल किया जासकता है। नेक सलूक के ज़रिये जहाँ उक़्दों को हल और कदूरत को पाक किया जासकता है, वहीँ ग़ुस्से की आग को ठंडा कर आपसी तनाज़ों को भी ख़त्म किया जासकता है।
पैग़म्बर (स.) फ़रमाते हैं कि अक्सरु मा तलिजु बिहि उम्मती अलजन्नति तक़वा अल्लाहि व हुसनुल ख़ुल्क़ि।” [4] मेरी उम्मत के बहुत से लोग जिसके ज़रिये जन्नत में जायेंगे वह तक़वा और अच्छा अखलाक़ है।
मोमिन की चौबीसवी सिफ़त-अस्लदा मिन अस्सलदि है यानी मोमिन पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है। कुछ लोग अहला मिन अश्शहदमंज़िल में हद से बढ़ गये हैं और ख़्याल करते हैं कि खुश अखलाक़ होने का मतलब यह है कि इंसान दुश्मन के मुक़ाबले में भी सख़्ती न बरते। लेकिन पैग़म्बर (स.) फ़रमाते हैं कि मोमिन शदह से ज़्यादा शीरीन तो होता है लेकिन सुस्त नही होता, वह दुश्मन के मुक़ाबले में पहाड़ से ज़्यादा सख़्त होता है। रिवायत में मिलता है कि मोमिन दोस्तों में रहमाउ बैनाहुम और दुश्मन के सामने अशद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार का मिसदाक़ होता है। मोमिन लोहे से भी ज़्यादा सख़्त होता है (अशद्दु मिन ज़बरिल हदीद व अशद्दु मिनल जबलि) चूँकि लोहे और पहाड़ को तराशा जा सकता है लेकिन मोमिन को तराशा नही जा सकता। जिस तरह हज़रत अली (अ.) थे,लेकिन एक गिरोह ने यह बहाना बनाया कि क्योंकि वह शौख़ मिज़ाज है इस लिए ख़लीफ़ा नही बन सकते जबकि वह मज़बूत और सख़्त थे। लेकिन जहाँ पर हालात इजाज़त दें इंसान को ख़ुश्क और सख़्त नही होना चाहिए, क्यों कि जो दुनिया में सख़्ती करेगा अल्लाह उस पर आख़िरत में सख़्ती करेगा।
मोमिन की पच्चीसवी सिफ़त-ला यकशिफ़ु सिर्रन है। यानी मोमिन राज़ों को फ़ाश नही करता , राज़ों को फ़ाश करने के क्या माअना हैं ?
हर इंसान की ख़सूसी ज़िन्दगी में कुछ राज़ पाये जाते हैं जिनके बारे में वह यह चाहता है कि वह खुलने न पाये होते हैं । क्योंकि अगर वह राज़ खुल जायेगें तो उसको ज़िन्दगी में बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। अगर कोई इंसान अपने राज़ को किसी दूसरे से बयान करदे तो और कहे कि अल मजालिसु अमानातयानी यह बाते जो यहाँ पर हुई हैं अपके पास अमानत हैं, तो यह राज़ है और इसको किसी दूसरे के सामने बयान नही करना चाहिए। रिवायात में तो यहाँ तक आया है कि अगर कोई आप से बात करते हुए इधर उधर इस वजह से देखता रहे कि कोई दूसरा न सुन ले, तो यह राज़ की मिस्ल है चाहे वह न कहे कि यह राज़ है। मोमिन का राज़ मोमिन के खून की तरह मोहतरम है लिहाज़ा किसी मोमिन के राज़ को ज़ाहिर नही करना चाहिए।
मोमिन की छब्बीसवी सिफ़त- ला युहतकु सितरन है। यानी मोमिन राज़ों को फ़ाश नही करता। हतके सित्र (राज़ो का फ़ाश करना) कहाँ पर इस्तेमाल होता है इसकी वज़ाहत इस तरह की जासकती है कि अगर कोई इंसान अपना राज़ मुझ से न कहे बल्कि मैं खुद किसी तरह उसके राज़ के बारे में पता लगालूँ तो यह हतके सित्र है। लिहाज़ा ऐसे राज़ को फ़ाश नही करना चाहिए, क्यों कि हतके सित्र और उसका ज़ाहिर करना ग़ीबत की एक क़िस्म है। और आज कल ऐसे राज़ों को फ़ाश करना एक मामूलसा बन गया है। लेकिन हमको इस से होशियार रहना चाहिए अगर वह राज़ दूसरों के लिए नुक़्सान देह न हो और ख़ुद उसकी ज़ात से वाबस्ता हो तो उसको ज़ाहिर नही करना चाहिए। लेकिन अगर किसी ने निज़ाम, समाज, नामूस, जवानो, लोगों के ईमान... के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है तो उस राज़ को ज़ाहिर करने में कोई इशकाल नही है। जिस तरह अगर ग़ीबत मोमिन के राज़ की हिफ़ाज़ से अहम है तो विला मानेअ है इसी तरह हतके सित्र में भी अहम और मुहिम का लिहाज़ ज़रूरी है।
अल्लाह हम सबको अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।

सिफ़ाते मोमिन (6)
मुक़द्दमा- पैग़म्बर अकरम(स.) की एक हदीस जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से बयान फरमाई थी। इस हदीस में मोमिन की 103 सिफ़तें बयान की गईं हैं जिनमें से छब्बीस सिफ़ते बयान हो चुकी हैं और पाँच सिफते और बयान करनी है।
हदीस-

“.....
लतीफ़ुल हरकात, हलवुल मुशाहिदति, कसीरुल इबादति, हुस्नुल वक़ारि, लय्यिनुल जानिबि.....।”[5]तर्जमा-
मोमिन की हरकतें लतीफ़, उसका दीदार शीरीन और उसकी इबादत ज़्यादा होती हैं, उससे सुबुक हरकतें सरज़द नहीं होती और उसमें मोहब्बत व आतिफ़त पायी जाती है।
हदीस की शरह-
मोमिन की सत्ताइसवी सिफ़त-लतीफ़ुल हरकातहोना है। यानी मोमिन के हरकातो सकनात बहुत लतीफ़ होते हैं और वह अल्लाह की मख़लूक़ के साथ मुहब्बत आमेज़ सलूक करता है।
मोमिन की अठ्ठाइसवी सिफ़त- हुलुवुल मुशाहिदह होना है। यानी मोमिन हमेशा शाद होता है वह कभी भी तुर्श रू नही होता।
मोमिन की उनत्तीसवी सिफ़त- कसीरुल इबादत है। यानी मोमिन बहुत ज़्यादा इबादत करता है। यहाँ पर एक सवाल पैदा होता है और वह यह कि इबादत से रोज़ा नमाज़ मुराद है या इसके कोई और माअना हैं?इबादत की दो क़िस्में हैं- इबादत अपने खास माअना में-
यह वह इबादत है कि अगर इसमें क़स्द क़ुरबत न किया जाये तो बातिल हो जाती है।
इबादत अपने आम माअना में-
हर वह काम कि अगर उसको क़स्द क़ुरबत के साथ किया जाये तो सवाब रखता हो मगर क़स्दे क़ुरबत उसके सही होने के लिए शर्त न हो। इस सूरत में तमाम कामों को इबादत का लिबास पहनाया जा सकता है। इबादत रिवायत में इसी माअना में हो सकती है।
मोमिन की तीसवीं सिफ़त- हुस्नुल वक़ारहै। यानी मोमिन छोटी और नीची हरकतें अंजाम नही देता। विक़ार या वक़ार का माद्दा वक़र है जिसके माअना संगीनी के हैं।
मोमिन की इकत्तीसवीं सिफ़त- लय्यिनुल जानिब है। यानी मोमिन में मुहब्बत व आतेफ़त पायी जाती है।
ऊपर ज़िक्र की गईं पाँच सिफ़तों में से चार सिफ़तें लोगों के साथ मिलने जुलने से मरबूत हैं।लोगों से अच्छी तरह मिलना और उनसे नेक सलूक करना बहुत ज़्यादा अहमियत का हामिल है। इससे मुख़ातेबीन मुतास्सिर होते हैं चाहे दीनी अफ़राद हों या दुनियावी।
दुश्मन हमारे माथे पर तुन्द ख़ुई का कलंक लगाने के लिए कोशा है लिहाज़ा हमें यह साबित करना चाहिए कि हम जहाँ अशद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार है वहीँरहमाउ बैनाहुमभी हैं। आइम्मा-ए- मासूमान अलैहिमुस्सलाम की सीरत में मिलता है कि वह उन ग़ैर मुस्लिम अफ़राद से भी मुहब्बत के साथ मिलते थे जो दर पैये क़िताल नही थे। नमूने के तौर पर, तारीख़ में मिलता है कि एक मर्तबा हज़रत अली अलैहिस्सलाम एक यहूदी के हम सफ़र थे। और आपने उससे फ़रमा दिया था कि दो राहे पर पहुँच कर तुझ से जुदा हो जाऊँगा। लेकिन दो राहे पर पहुँच कर भी जब हज़रत उसके साथ चलते रहे तो उस यहूदी ने कहा कि आप ग़लत रास्ते पर चल रहे हैं, हज़रत ने उसके जवाब में फ़रमाया कि अपने दीन के हुक्म के मुताबिक हमसफ़र के हक़ को अदा करने के लिए थोड़ी दूर तेरे साथ चल रहा हूँ। आपका यह अमल देख कर उसने ताज्जुब किया और मुस्लमान हो गया। इस्लाम के एक सादे से हुक्म पर अमल करना बहुत से लोगों के मुसलमान बनने इस बात का सबब बनता है। (यदख़ुलु फ़ी दीनि अल्लाहि अफ़वाजन) लेकिन अफ़सोस है कि कुछ मुक़द्दस लोग बहुत ख़ुश्क इंसान हैं और वह अपने इस अमल से दुश्मन को बोलने का मौक़ा देते हैं जबकि हमारे दीन की बुनियाद तुन्दखुई पर नही है। क़ुरआने करीम में 114 सूरेह हैं जिनमें से 113 सूरेह अर्रहमान अर्रहीम से शुरू होते हैं। यानी 1/114 तुन्दी और 113में रहमत है।
दुनिया में दो तरीक़े के अच्छे अखलाक़ पाये जाते हैं।
रियाकाराना अखलाक़ (दुनियावी फ़ायदे हासिल करने के लिए)
मुख़लेसाना अखलाक़ (जो दिल की गहराईयों से होता है)
पहली क़िस्म का अख़लाक यूरोप में पाया जाता है जैसे वह लोग हवाई जहाज़ में अपने गाहकों को खुश करने के लिए उनसे बहुत मुहब्बत के साथ पेश आते हैं, क्योंकि यह काम आमदनी का ज़रिया है। वह जानते हैं कि अच्छा सलूक गाहकों को मुतास्सिर करता है।
दूसरी क़िस्म का अख़लाक़ मोमिन की सिफ़त है। जब हम कहते हैं कि मोमिन का अखलाक बहुत अच्छा है तो इसका मतलब यह है कि मोमिन दुनयावी फ़ायदे हासिल करने के लिए नही बल्कि आपस में मेल मुहब्बत बढ़ाने के लिए अख़लाक़ के साथ पेश आता है। क़ुरआने करीम में हकीम लुक़मान के क़िस्से में उनकी नसीहतों के तहत ज़िक्र हुआ है व ला तुसाअइर ख़द्दका लिन्नासि व ला तमशि फ़िल अरज़े मरहन...”[6] “तुसाअइरका माद्दासअरहै और यह एक बीमारी है जो ऊँटों में पाई जाती है । इस बीमारी की वजह से ऊँटो की गर्दन दाहिनी या बाईँ तरफ़ मुड़ जाती है। आयत फ़रमा रही है कि गर्दन मुड़े बीमार ऊँट की तरह न रहो और लोगों की तरफ़ से अपने चेहरे को न मोड़ो । इस ताबीर से मालूम होता है कि बद अख़लाक़ अफ़राद एक क़िस्म की बीमारी में मुबतला हैं। आयत के आख़िर में बयान हुआ है कि तकब्बुर के साथ राह न चलो।

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[
1] बिहारूल अनवार जिल्द 64/310
[
2] सूरए तौबा आयत न. 79
[
3] बिहारूल अनवार जिल्द 64 पोज न. 310
[
4] बिहारूल अनवार जिल्द 68 बाब हुस्नुल ख़ुल्क़ पोज न. 375
[
5]बिहारुल अनवार जिल्द 64 पेज न. 310
[
6] सूरए लुक़मान आयत न. 18
सिफ़ाते मोमिन (7)
कुछ अहादीस के मुताबिक़ 25 ज़ीक़ादह रोज़े दहुल अर्ज़ और इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के मदीने से तूस की तरफ़ सफ़र की तारीख़ है। दह्वके माअना फैलाने के हैं। कुरआन की आयत व अलअर्ज़ा बअदा ज़ालिका दहाहा ”[1] इसी क़बील से है।
ज़मीन के फैलाव से क्या मुराद हैं ? और इल्मे रोज़ से किस तरह साज़गार है जिसमें यह अक़ीदह पाया जाता है कि ज़मीन निज़ामे शम्सी का जुज़ है और सूरज से जुदा हुई है?
जब ज़मीन सूरज से जुदा हुई थी तो आग का एक दहकता हुआ गोला थी, बाद में इसकी भाप से इसके चारों तरफ़ पानी वजूद में आया जिससे सैलाबी बारिशों का सिलसिला शुरू हुआ और नतीजे में ज़मीन की पूरी सतह पानी में पौशीदा हो गई। फिर आहिस्ता आहिस्ता यह पानी ज़मीन में समा ने लगा और ज़मीन पर जगह जगह खुशकी नज़र आने लगी। बस दहुल अर्ज़ पानी के नीचे से ज़मीन के ज़ाहिर होने का दिन है। कुछ रिवायतों की बिना पर सबसे पहले खाना-ए- काबा का हिस्सा जाहिर हुआ। आज का जदीद इल्म भी इसके ख़िलाफ़ कोई बात साबित नही हुई है। यह दिन हक़ीक़त में अल्लाह की एक बड़ी नेअमत हासिल होने का दिन है कि इस दिन अल्लाह ने ज़मीन को पानी के नीचे से ज़ाहिर कर के इंसान की ज़िंदगी के लिए आमादह किया।
कुछ तवारीख़ के मुताबिक़ इस दिन इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने मदीने से तूस की तरफ़ सफर शुरू किया और यह भी हम ईरानियों के लिए अल्लाह एक बड़ी नेअमत है। क्योंकि आपके क़दमों की बरकत से यह मुल्क आबादी, मानवियत, रूहानियत और अल्लाह की बरकतों के सर चशमे में तबदील हो गया। अगर हमारे मुल्क में इमाम की बारगाह न होती तो शियों के लिए कोई पनाहगाह न थी। हर साल तक़रीबन 1,5000000 अफ़राद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम से तजदीदे बैअत के लिए आपके रोज़े पर जाकर ज़ियारत से शरफयाब होते हैं। आप की मानवियत हमारे पूरे मुल्क पर साया फ़िगन है और हम से बलाओं को दूर करती है। बहर हाल आज का दिन कई वजहों से एक मुबारक दिन है। मैं अल्लाह से दुआ करता हूँ कि वह हमको इस दिन की बरकतों से फ़ायदा उठाने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।
मुक़द्दमा-
रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम की एक हदीस नक़्ल की जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से खिताब फ़रमाई। इस हदीस में मोमिने कामिल की 103 सिफ़तें बयान की गयीं हैं, इनमें से 31 सिफ़तें बयान कर चुके हैं और चार सिफ़ात और बयान करेंगे।
हदीस-
“......हलीमन इज़ा जहला इलैह, सबूरन अला मन असा इलैह, युबज्जिलुल कबीरा व युराह्हिमु अस्सग़ीरा......।”[2]
तर्जमा-
मोमिने कामिलुल ईमान जाहिलों के जहल के मुक़ाबिल बुरदुबार और बुराईयों के मुक़ाबिल बहुत ज़्यादा सब्र करने वाला होता है, वह बुज़ुर्गों का एहतराम करता है और छोटों के साथ मुहब्बत से पेश आता है।
हदीस की शरह-
मोमिन की बत्तीसवीं सिफ़त-हलीमन इज़ा जहला इलैहहै। यानी वह जाहिलों के जहल के सामने बुरदुबारी से काम लेता है अगर कोई उसके साथ बुराई करता है तो वह उसकी बुराई का जवाब बुराई से नही देता।
मोमिन की तैंतीससवीं सिफ़त- सबूरन अला मन असा इलैह है। यानी अगर कोई मोमिन के साथ अमदन बुरा सलूक करता है तो वह उस पर सब्र करता है। पहली सिफ़त में और इस सिफ़त में यह फ़र्क़ पाया जाता है कि पहली सिफ़त में ज़बान की बुराई मुराद है और इस सिफ़त में अमली बुराई मुराद है।
इस्लाम में एक क़ानून पाया जाता है और एक अखलाक़, क़ानून यह है कि अगर कोई आपके साथ बुराई करे तो आप उसके साथ उसी अन्दाज़े में बुराई करो। क़ुरआन में इरशाद होता है कि फ़मन एतदा अलैकुम फ़आतदू अलैहि बिमिसलि मा आतदा अलैकुम..।”[3] यानी जो तुम पर ज़्यादती करे तुम उस पर उतनी ही ज़्यादती करो जितनी उसने तुम पर की है। यह क़ानून इस लिए है ताकि बुरे लोग बुरे काम अंजाम न दें। लेकिन अख़लाक़ यह है कि न सिर्फ़ यह कि बुराई के बदले में बुराई न करो बल्कि बुराई का बदला भलाई से दो। क़ुरआन फ़रमाता है कि इज़ा मर्रु बिल लग़वि मर्रु किरामन”[4] या इदफ़अ बिल्लति हिया अहसनु सय्यिअता”[5] यानी आप बुराई को अच्छाई के ज़रिये ख़त्म कीजिये। या व इज़ा ख़ातबा हुम अल जाहिलूना क़ालू सलामन”[6] जब जाहल उन से ख़िताब करते हैं तो वह उन्हें सलामती की दुआ देते हैं।
मोमिन की चौंतीसवीं सिफ़त-युबज्जिलुल कबीराहै। यानी मोमिन बुज़ुर्गों की ताज़ीम करता है। बुज़ुर्गों के एहतराम के मस्अले को बहुतसी रिवायात में बयान किया गया है। मरहूम शेख़ अब्बासे क़ुम्मी ने सफ़ीनतुल बिहारमें एक रिवायत नक़्ल की है कि मन वक़्क़रा शैबतिन लि शैबतिहि आमनुहु अल्लाहु तआला मन फ़ज़ाअ यौमिल क़ियामति ”[7] जो किसी बुज़ुर्ग का एहतराम उसकी बुज़ुर्गी की वजह से करे तो अल्लाह उसे रोज़े क़ियामत के अज़ाब से महफ़ूज़ करेगा। एक दूसरी रिवायत में मिलता है कि इन्ना मिन इजलालि अल्लाहि तआला इकरामु ज़ी शीबतिल मुस्लिम ”[8] यानी अल्लाह तआला की ताअज़ीम में से एक यह है कि बुज़ुर्गों का एहतराम करो।

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